स्वतंत्र भारत में मसीही समुदाय की स्थिति स्वयं स्पष्ट करकेे गए थे गांधी जी
जब एक बार गांधी जी के उत्तर से निराश हो गया था भारत का मसीही समुदाय
न्यूयार्क (अमेरिका) स्थित प्रकाशक चार्लस स्क्रिबनर्स सन्स ने 1949 में सैम हिगिनबॉटम की स्व-जीवनी ‘सैम हिगिनबॉटमः फ़ार्मर एन ऑटोबायोग्राफ़ी’ (सैम हिगिनबॉटमः एक किसान की स्व-जीवनी) प्रकाशित की थी। उसमें देश के स्वतंत्र होने से पूर्व में घटित भारत के मसीही समुदाय एवं गंांधी जी संबंधी एक महत्त्वपूर्ण घटना का वर्णन है, जो कुछ यूं है कि कुछ अल्प-संख्यक ईसाईयों ने गांधी जी से बात की कि आख़िर स्वतंत्र भारत में उनकी क्या स्थिति होगी। उस मसीही प्रतिनिधि मण्डल ने चाहे गांधी जी से हिन्दी में बात की थी परन्तु उन्होंने अपना उत्तर अंग्रेज़ी भाषा में दिया। जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वह विदेशियों से सदा अंग्रेज़ी में ही बात किया करते हैं। दरअसल उस प्रतिनिधि मण्डल में सीरियन मार थोमा चर्च से जुड़े मसीही लोग भी थे, जो दूसरी सदी ईसवी से अर्थात विगत 1700 से भी अधिक वर्षों से भारत में रह रहे थे। उनके कारण गांधी जी ने अपना जवाब अंग्रेज़ी भाषा में दिया था। इस बात से वह मसीही प्रतिनिधि मण्डल बहुत निराश व दुखी हुआ कि जब गांधी जी उन सदियों से भारत में रह रहे ईसाईयों को भी विदेशी मान रहे हैं, तो अन्य कट्टर प्रकार के लोग तो ऐसी बातें करेंगे ही।
गांधी जी ने बाद में दिया स्पष्टीकरण - भारत केवल हिन्दुओं का नहीं, अपितु मसीही लोगों, पारसियों सभी का है
बाद में गांधी जी ने इस संबंधी 9 दिसम्बर, 1946 को रामगन्ज में द्योभांकर को दिए एक साक्षात्कार (इन्टरव्यु, जो नई दिल्ली के सरकारी पब्लीकेशन्ज़ डिवीज़न में अब भी सुरक्षित पड़ा है) में स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि ‘‘हिन्दुओं को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि हिन्दुस्तान केवल और केवल उन्हीं का है। पारसी समुदाय यहां सदियों से रह रहा है तथा सीरियन क्रिस्चियन्ज़ पहली सदी ईसवी से भारत में रह रहे हैं। उन सभी को भारतीय ही मानना होगा और उन्हें भी अन्य सभी भारतियों की तरह सभी बराबर के अधिकार होंगे।’’ उसके पश्चात् 31 जुलाई, 1947 को पंजाब स्टूडैंट क्रिस्चियन लीग के प्रधान को रावलपिण्डी (अब पाकिस्तान) में दिए साक्षात्कार (इन्टरव्यु, जो नई दिल्ली के सरकारी पब्लीकेशन्ज़ डिवीज़न में अब भी सुरक्षित पड़ा है) में भी यही बात दोहराई थी कि ‘अंग्रेज़ों से भारत के चले जाने के बाद भारत के ईसाई स्वतंत्र भारत में कोई भी उच्च से उच्च पद पर नियुक्त होने के अधिकारी होंगे और उन्हें ऐसी पूर्ण स्वतंत्रता होगी।’
भारत में मसीही समुदाय स्वयं को अल्पसंख्यक नहीं, अपितु अन्य सभी भारतीय की तरह ही समझेः गांधी जी
बम्बई के प्रकाशक विट्ठलभाई के. ज़ावेरी एवं डी.जी. तेन्दुलकर ने महात्मा गांधी के जीवन के लगभग सभी कार्यों की एक पुस्तक-शृंखला कई भागों में प्रकाशित की थी। उसी शृंखला के आठवें भाग ‘मोहनदास कर्मचन्द गांधी का महात्मा जीवन’ (जिसमें गांधी जी के 1947 एवं उसके बाद उनकी हत्या तक की सभी बातों का वर्णन है) के पृष्ठ 118-119 पर बताया गया है कि 28 अगस्त, 1947 को भारत के ईसाई गांधी जी को कलकत्ता में मिले थे और उन्हें पूछा था कि अब तो भारत स्वतंत्र हो गया है, अब उनसे कैसा व्यवहार होगा? उस समय के माहौल में मसीही समुदाय के नेताओं द्वारा ऐसे प्रश्न पूछे जाने बेहद स्वाभाविक थे, क्योंकि भारत को स्वतंत्र हुए अभी केवल 12 दिन ही हुए थे। उस समय सभी समुदायों के मन में ऐसे प्रश्न उठ रहे होंगे। इसी लिए मसीही नेताओं ने भी गांधी जी से प्रश्न किया कि उनका क्या होगा क्योंकि उनके पास तो सरकार या विधान सभाओं में कोई भी सीटें नहीं हैं। तब गांधी जी ने उन्हें उत्तर दिया था कि पक्षपातपूर्ण विदेशी शासन का विष अब चला गया है। भारत के सुसंस्थापित समाज में केवल वरीयता के आधार पर ही अब परीक्षा होगी, यहां पर कोई अल्प-संख्यक नहीं हैं। अल्प-संख्यक यह बात क्यों महसूस नहीं करते कि वे भी भारत की वर्तमान कुल जन-संख्या 40 करोड़ में शामिल हैं और उनमें ऐसी भावना नहीं होनी चाहिए कि भारत में उनकी संख्या कम है, अपितु उन्हें इस बात का गर्व होना चाहिए कि उन्होंने इस धरती व देश में जन्म लिया है। वे कानून की नज़रों में अन्य नागरिकों की तरह ही समान हैं। यदि कोई ईसाई वरीयता में आगे है, उसकी बौद्धिक क्षमता है, स्व-बलिदान कर सकता है, उसमें हौसला है तथा किसी भी प्रकार से भ्रष्ट नहीं है, तो वह किसी भी राज्य का मुख्य मंत्री भी बन सकता है। धर्म तो पूर्णतया एक निजी मामला है। इसी लिए एफ़.जे. बालासुन्दरम ने बिल्कुल सही टिप्पणी की है ‘‘गांधी जी ने भारत के मसीही समुदाय को बिल्कुल उसी तरह से जीने का आह्वान किया था, जैसे कि यीशु मसीह के सुसमाचार में भी है। ईसाई भी भारत के सच्चे नागरिक हैं, उनमें भी देश-भक्ति की सच्ची भावना है एवं राष्ट्रीय भावनाएं हैं तथा वे राष्ट्र-निर्माण के उद्यमों में भी पूर्णतया शिद्दत से सम्मिलित होते हैं।’’
भारत की स्वतंत्र-प्राप्ति के समय देश में घटित हुए सांप्रदायिक दंगों से बहुत आहत हुए थे गांधी जी
1947 के सांप्रदायिक दंगों में मसीही समुदाय पर हमलों की अनेक घटनाएं घटित हुई थीं। उनमें से एक घटना दिल्ली से 25 किलोमीटर दूर कान्हाई गांव में भी घटित हुई थी। यह गांव अब गुड़गांव में पड़ता है। इस गांव में तब कुछ रोमन कैथोलिक मसीही रहते थे, उन्हें कुछ बहुसंख्यक लोगों ने धमकी दे थी कि उनका हशर बुरा होगा यदि वे यह गांव छोड़ कर नहीं गए। दरअसल स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् कुछ अनपढ़, ग़ैर-जागरूक, कट्टर व मूलवादी मानसिकता वाले लोग (विशेषतया बहुसंख्यक) यह समझने लगे थे कि अब भारत में वे अकेले रहेंगे और अन्य अल्प-संख्यक धर्मों वाले लोग किसी और देश में चले जाएंगे। (ऐसे समाज-विरोधाी तत्त्व अभी तक इस देश में मौजूद हैं, जो भारत के धर्म-निरपेक्ष ताने-बाने को समझना ही नहीं चाहते और आज भी ऐसे कुछ मुट्ठीभर लोग सांप्रदायिकता का विष फैलाने का प्रयत्न तो करते हैं परन्तु उनकी कभी चलती नहीं है) गांधी जी उन दिनों ऐसी सांप्रदायिक घटनाओं से अत्यंत दुःखी रहते थे। 21 नवम्बर, 1947 को उन्होंने दिल्ली की एक प्रार्थना सभा में संबोधित करते हुए (राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी जी के ऐसे सभी भाषण नई दिल्ली के सरकारी पब्लीकेशन्ज़ डिवीज़न में अब भी सुरक्षित पड़े हैं) कान्हाई गांव की इस घटना पर खेद प्रकट करते हुए कहा था कि ‘‘मसीही समुदाय को ऐसी धमकियां देना पूर्णतया निर्मूल व निराधार है। मसीही बहनों-भाईयों को अपना धर्म अपनी इच्छा अनुसार मानने की स्वीकृति देनी होगी तथा वे अपने सभी कार्य बेरोक करेंगे। अब हम किसी भी प्रकाार के राजनीतिक बन्धनों से भी स्वतंत्र हैं, अतः ईसाईयों को जो धार्मिक आज़ादी ब्रिटिश राज्य में थी, वह उन्हें स्वतंत्र भारत में भी होगी। स्वतंत्रता प्राप्ति का यह अर्थ यह नहीं है कि भारत में अब केवल हिन्दुओं का ही शासन होगा तथा पाकिस्तान में केवल मुस्लमानों का।’’
धर्म-निरपेक्षता को ही भारतीय लोकतंत्र की मुख्य शक्ति माना गया
बहुत से मूलवादी व बहु-संख्यक हिन्दु गांधी जी की ऐसी धर्म निरपेक्ष बातों के सख़्त विरोधी थे। क्योंकि वे तो यही समझते थे कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत में केवल उन्हीं की हकूमत चलेगी, परन्तु महात्मा गांधी के साथ नेहरु एवं सरदार पटेल जैसे धर्म-निरपेक्ष कांग्रेसी नेताओं तथा संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने ऐसे सांप्रदायिक सोच वाले लोगों की एक नहीं चलने दी। इसी लिए अब उसी धर्म-निरपेक्षता को भारतीय लोकतंत्र की मुख्य शक्ति माना जाता है। परन्तु अफ़सोस कि भारत को पूर्णतया धर्म-निरपेक्ष बनाने के लिए गांधी जी को अपनी जान देकर इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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